चोरी छुपके स्पर्श से कंही
जाग उठी थी प्रीत
भीतर जैसे लहर उठी थी
लब पे था एक गीत
बीत गया था हरदिन मेरा
खोजने की फ़िक्र मे
पाँव मे छाले पडे थे
कर सका ना जिक्र मै
उदासियों के अंधियारे
आज गये है बीत
भीतर जैसे लहर उठी थी
लब पे था एक गीत
दबा दबा था हर पल मेरा
जमाने का डर लिए
स्पर्श का जादू है कैसा
होश उडे थे बिन पिये
बंधमुक्त हो चुका हूं मै
तोड के जगकी रीत
भीतर जैसे लहर उठी थी
लब पे था एक गीत
निराश था जीना भी अब तक
हार गया था बाजी
सागर मे बहते जीवन को
आज मिल गया माझी
झलक रही थी हार मे कंही
मेरी अपनी जीत
भीतर जैसे लहर उठी थी
लब पे था एक गीत
धुंधलासा सपना था मेरा
धूमिलसा दिखता था कोई
आस जगी थी मन मे मेरे
जो अबतक थी सोयी
कह नही पाया जो होठों से
कलम से निकला मीत
भीतर जैसे लहर उठी थी
लब पे था एक गीत
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
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